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इस प्रकार यद्यपि अव्यक्त प्रकृति में व्यक्त व्यवसायात्मिक बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, तथापि प्रकृति अब तक एक ही नं रहती है। इस एकताका भंग होना और बहुधा पन या विविधत्य काल होना ही है। पारे का जमीन पर गिर पड़ना और उसकी अलग २ छोटी २ गोलियां बन जाना। बुद्धि के बाद जब तक यह प्रथकता या विविधता उत्पन्न न हो तब तक एक प्रकृति के अनेक पदार्थ हो जाना संभव नहीं । बुद्धि के आगे उत्पन्न होने वाली इस पृथकता के गुण को ही अहंकार ' कहते हैं। क्योंकि पृथकता मैं तू शब्दों से ही प्रथम व्यक्त की जाती है; और मैं तू का अर्थ ही अहंकार अथवा अहं अहं ( मैं मैं) करना है। प्रकृति उत्पन्न होने वाले अहंकार के इस गुण को यदि आप चाहे तो वे अर्थात् अपने आपको ज्ञात न होने वाला अहंकार कह सकते हैं। परन्तु स्मरण रहे कि मनुष्य में प्रकट होने वाला अहंकार, और वह
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अहंकार कि जिसके कारण पेड़ पत्थर पानी अथवा भिन्न २ मूल परमाणु एक ही प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। ये दोनों एक ही जाति के हैं। भेद केवल इतना ही है, कि पत्थर में चैतन्य न होने के कारण उसे 'अहं' का ज्ञान नहीं होता. और मुंह न होने के कारण 'मैं तू' कह स्वाभिमान पूर्वक वह अपनी पृथक्ता किसी पर प्रकट नहीं कर सकता। सारांश यह कि दूसरों से पृथक रहने का अर्थात अभिमान या अहंकार तत्र सब जगह समान ही है इस अहंकार ही का तैजस अभिमान भूतादि और धातु भी कहते हैं। अहंकार बुद्धि हीं का एक भाग है, इसलिये पहले जब तक बुद्धि न होगी तब तक अहंकार उत्पन्न हो ही नहीं सकता । - अतएव सांख्यों ने यह निश्चित किया है कि अहंकार यह दूसरा अर्थात् बुद्धि के बाद का गुण हैं । अत्र यह बतलाने
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