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गुणों का जाल कैसे फैलाया करती है, और उस जल से हमको अपना छुटकारा किस प्रकार कर लेना चाहिये । परन्तु अब तक इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया कि प्रकृति अपने जाले को अनखे, संकर या ज्ञानेश्वर महाराजके राज्यों में प्रकृति की टकसाल' को किस क्रम से पुरुष के सामने फैलाया करती है. और उसका लय किस प्रकार हुआ करता है। प्रकृति के इस व्यापार ही को 'विश्वकी रचना और संहार कहते हैं और इसी विषयका विवेचन प्रस्तुत प्रकरण में किया जायगा। सांख्यमतके अनुसार प्रकृतिने इस जगत् या सृष्टिको श्रखं पुरुषोंके लाभ के लिए ही निर्माण किया है। 'दासबोध' में श्री समर्थ रामदास स्वामी ने भी प्रकृति से सारे ब्रह्माण्डके निर्माण होनेका बहुत अच्छा वर्णन किया है उसी वर्णन से 'विश्व की रचना और संहार शब्द इस प्रकरण में लिए गए हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता के सातवें और आठवें अध्याय में मुख्यतः इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। और ग्यारहवें अध्यायके आरम्भ मैं अर्जुन ने श्री कृष्ण से जो यह प्रार्थना को है कि
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“भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तारशोमय ।"
भूतों की उत्पत्ति और प्रलय ( जो आपने ) विस्तार पूर्वक ( चतलाई उसको ) मैंने सुना, अब मुझको अपना विश्व रूप प्रत्यक्ष दिवाकर कृतार्थ कीजिये । उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि विश्व रचना और संहार तर — अक्षर-विचार ही का एक मुख्य भाग है। 'ज्ञान' वह है जिससे यह बात मालूम हो जाती है कि सृष्टि के अनेक (नाना ) व्यक्त पदार्थों में एक ही storeमूल द्रव्य है (गीता १०.२० ) और 'विज्ञान' उसे कहते हैं. जिससे यह मालूम हो कि एक ही मूलसून अव्यक्त द्रव्य से भिन्न अनेक पदार्थ किस प्रकार अलग अलग निर्मित हुए. (गीता १३।२० ) और इसमें न केवल क्षर-अक्षर विचार ह. का सभा
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