________________
सूक्ष्म और चारों ओर अखंडित भरे हुए एक ही निरव यब मूल द्रव्यसे सारी व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई है । यह द्धिान्त पश्चिमी देशों के अर्वाचीन अधिभौतिक शास्त्रज्ञोंको प्राहा है । प्राय होक्यों. अत्र तो उन्होंने यह भी निश्चित किया है, किसी मूल द्रव्यको शक्तिका क्रमशः विकास होता आया है. और इस पूर्वापर क्रमको छोड़ अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं हुआ है। इसी मतको उत्क्रांति-वाद या विकास सिद्धान्त कहते हैं । जब ग्रह सिद्धान्त पश्चिमी राष्ट्रोंमें, गत शताब्दी में पहले पहल ढूंढ़ निकाला गया तत्र यहां बड़ी खलबली मच गई थी। ईसाई धर्म पुस्तकों में यह वर्णन है, कि ईश्वरने पंचमहाभूतोंको और जंगम वर्गके प्रत्येक प्राणीको जातिको भिन्न भिन्न समय पर पृथक पृथक और स्वतन्त्र निर्माण किया है, और इसी मतको. उत्क्रान्तिवान के पहले सब ईसाई लोग सलमानते थे। एक जब दाई का काः सिद्धान्त उत्क्रान्ति-वादसे असत्य ठहराया जाने लगा. तब उत्क्रान्ति-वादियों पर खूब जोरसे आक्रमण और कटाक्ष होने लगे। ये कटाक्ष आज कल भी न्यूनाधिक होते ही रहते है । तथापि शास्त्रीय सत्यमें अधिक शक्ति होनेके कारण मृष्टि उत्पत्तिके सम्बन्ध में सम विद्वानोंका उत्क्रान्ति मत ही आज कल अधिक प्रास्त्र होने लगा है, इस मतका सारांश यह है:-सूर्य मालामें पहले कुछ एक ही सूक्ष्म द्रव्य था; उसकी गति अथवा उष्णताका परिणाम घटता गया; तब उक्त द्रव्यका अधिकाधिक संकोच होने लगा. और पृथ्वी समेत सब ग्रह क्रमशः उत्पन्न हुए, अंतमें जो शेष अंग अचा बही सूर्य है । पृथ्वीका भी सूर्यके सदृश पहले एक उष्ण गोला था. परन्तु ज्यों ज्यों उसकी उष्णता कम होती गई त्यो त्यों मूल द्रव्यों में से कुछ द्रव्य पतले और कुछ घने होगये, इस प्रकार पृथ्वीके ऊपरफी इथा और पानी लथा उसके नीचेका पृथ्वीका जड़ गोला