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( ४५६ ) अथ योऽस्यदचिणः सुधिः स व्यानस्तच्छोत्रं स चन्द्रमास्तदेतच्छ्रीश्च यश्वेत्युपासीत श्रीमान् यशस्वी भवति य एवं वेद ॥ २॥
अथ योस्यप्रत्यङ्सुषिः सोऽपानः सा वाक् सोऽग्निस्तदेतद् ब्रह्मवचं समाधमित्युपासीत ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति य एवं बेद ॥३॥
अथ योऽस्योदसुषिः स समानस्तन्मतः स पर्जन्यः ॥४॥ अथ योऽस्योंर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायु स आकाशा
अर्थात्-इस इश्यके देव सुशि (छिद्र) हैं। इसका जो पूर्व दिशावर्ती छिद्र है वह प्राण है, वह चक्षु है, वह आदित्य है, वहीं ग्रह तेज और वहीं अन्नाद्य है, इस प्रकार उपासना करे, जो इस प्रकार जानता है वह तेजस्वी और अन्नका भोक्ता होता है।
तथा अन्य स्थानमें भी आया है कि"आदित्यो ह नै वासः प्राण" प्र० उ०३८
अर्थात-निश्चयसे वारा प्राणका नाम ही आदित्य है तथा च "स आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठितः, इति चक्षुषि" ००३।ह
"यह आदित्य किसमें स्थित है ? चक्षुमें"
तथा इसका जो दक्षिण छिद्र हैं, वह व्यान है, वही श्रोत्र है, • वही चन्द्रमा है और वही यह श्री एवं यश है। अन्यत्र कहा है कि
"श्रोत्रेण सृष्टादिशश्च चन्द्रमाश्च !" एवं इसका जो पश्चिम छिद्र है वह अपान है. वह वाक है, वह अग्नि है, आषि