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द्वितोय यान्तरिच्यास्तृतीया दिव्यां चतुर्थ्यां परावतो लोकान परिमिता भिरपरिमितॉल्लोकान भिजयतीति विज्ञायते ।
श्री यदि एक रात अतिथिको वास देता है. तो पार्थिव लोकांक जीतता है। दूसरी (रात देने से ) अन्तरिक्ष में होने वाले लःकोको तीसरी दिव्य लोकोंको, चौथीसे उनसे भी पर जो लोक हैं और अपरिमितसे अपरिमित लोकोको जीतता है ऐसा ब्राह्मण ज्ञान होता है ।
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नित्य जीवात्मा अपने अपने कम के अनुसार इनमें से भिन्न भिन्न लोकों में जन्म लेता है। मनुष्य शरीर सबसे श्रेष्ट शरीर माना गया है। उस मनुष्यको इस पृथ्वी पर जिस प्रकार से परम सुख मिले, उसका विधान ब्राह्मण ग्रन्थ करते हैं । आज भी पश्चिम लौकिक विद्याने बहुत उन्नतिकी है । परन्तु उस सारी उन्नति में सुखकी मात्रा यद्यपि अधिक तो की गई है. पर ओ कर्म अन्य दुःख आने हैं. उनसे निक्टारका कोई उपाय नहीं सोचा गया पश्चिम वाले ऐसा कर भी नहीं सकते अमर आत्मामें उनका विश्वास नहीं है इसलिये प्रवाद रूपस क्रमोंके सिद्धान्तका उन्होंने नहीं जान।।" (पं भगवतदत्त जा ) यहां भी तीन लोकांसे शरीर के तीन लोकही अभिप्रेत है. क्योंकि यह जगत तो न कभी बनता है न कभी इसका नाश ही होता है। वा संपूर्णानन्द जी ने इसका अच्छा विवेचन किया है। यथा-
सप्त लोक
"जिस प्रकार वैदिक आर्य सात लोक, और सात आदित्य मानते थे उसी प्रकार पारसियों के यहां भी सात कवर और सात अधिमाने जाते हैं। उनका ऐसा विश्व है कि एक ही