________________
वहां जिससे छिद्र बंद कियाजाय वह लोकपणा कहलाती है) लेकर मैं आऊंगा । परमेष्ठी में स्वीकार किया. सूर्य ने लोकंपूणा के साथ स्वर्ग में आश्रय लिया और प्रति दिन श्रावृति करके प्रकाश देने का कार्य चालू रक्खा] लोकपणा अक्षीण--सारा है. इस लिये सूर्य भी अक्षीण-सार है, अर्थान् अक्षय प्रकाश वाला है ।
तानृपयांऽत्रुवन्नुप व आयामेति । केन न उष्यथेति । भूम्नेत्यब्रुवन् तान् द्वाभ्यां चितीभ्यामुपायन्त ।
(कृ. यजु० ते० सं० ५।७।५) .. अर्थ-षियों ने प्रजापति आदि पांचों से पूछा कि हम तुम्हारे पास श्राय ? पांचों ने पूछा कि तुम हमें क्या होगे ? ऋषियों ने कहा कि हम बहुत बहुत देंगे। पाचों ने स्वीकार किया ऋषियोने चौथी और पांचवीं दो चित्तियोंके साथ श्राश्रय लिया।
प्रजापतिकी अशक्तिका एक और नमूना देखि ये--
प्रजापतिः प्रजाः सृष्टा प्रेमणानुप्राविशत् । ताभ्यः पुनः सं भपितुंना शक्नोत् । सोऽब्रवीत् । ऋनवदित् स यो मेतः पुनः संचिन बदिति । तं देवाः समाचिन्वन् । ततो वै त प्राप्नुवन् । (कृ० यजु० ते० सं० १५२)
अर्थ-प्रजापति ने मृष्टि सजन करके प्रेम से उस प्रमा में प्रवेश किया । किन्तु उसमें से पीछे निकल न सका तब उसने देवताओंको कहाकि जो मुझे निकाल देगा वहऋद्धिमान होगा। देवतानोने उसे बाहर निकाल दिया जिससे वे ऋद्धिवान होगये । यहाँ प्रजापति आत्मा तथा प्रजायें इन्द्रिय आदि हैं।
(यह प्रकरण. स्थानकवासी जैन मुनि श्वी रसचन्द जी शतावधानी द्वारा लिखित 'सृष्टि बाद और ईश्वर के प्राघारसे लिखा गया है।)