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में आऊं ? विश्वकर्मा ने पूछा कि क्या वस्तु लेकर तू मेरे पास आयेगा ? यक्ष पुरुषने कहा कि - दिशाओं में देने की आहुति लेकर आऊंगा ? विश्वकर्मा ने उसे स्वीकार कर लिया। यह पुरुष ने अन्तरिक्षमें दिशाका आश्रय किया और प्राची आदि दिशाएं बन गई स परमेष्ठी प्रजापतिमत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति । नेहलोकोऽस्तीत्यताम् । स एतां तृतीय चितिमपश्यत् । तामुपाधततदसावभवत् । (कृ० तजु० ० सं० ५७/५)
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अर्थ - ( उसके बाद चौथा पतमेष्ठी आता है) परमेष्ठी ने प्रजापति विश्वकर्मा और यह पुरुष को पूछा कि मैं तुम्हारे पास आऊं ? तीनों ने उत्तर दिया कि हमारे पास जगह नहीं है । इतने मैं परमेष्ठी ने तीसरी चिति श्राहुति देखी उसका आश्रय लिया तो वह स्वर्ग बन गई :
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स श्रादित्यः प्रजापतिमत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति नेहनोकोऽतीत्यत्रत् । स विश्वकर्माणं च यज्ञं चाब्रवीत् । उपत्रामध्य नाति । नेड लोकोऽस्तीत्यताम् । स परमेष्ठिन पत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति । केनयोन्यसीति लोकं पृययेत् वीतम् | लोकं पृथयो चस्मादयातयाम्नी । लोकं वृणाऽयातयामा ह्यसावादित्यः । (कु०यजु० तै०सं० ५७५)
अर्थ – उस सूर्य ने प्रजापति को कहा कि मैं तेरे पास आऊं ? प्रजापति ने कहा कि यहां अवकाश नहीं है । इसके बाद विश्वकर्मा और यज्ञ पुरुष को पूछा तो उन दोनों ने भी मना कर दिया। सब सूर्य ने परमेष्ठिको पूला परमेष्ठीने कहा कि क्या लेकर मेरे पास आयेगा ? सूर्य ने कहा लोकं प्रा बार बार उपयोग करनेपर भी जिसका तत्व क्षीण नहीं हो और चिति में जहा छिद्र हो जाय,
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