________________
( ४४६ )
ऋतु सृष्टि सोऽकामयत प्रजायेयेति । स तपोऽतथ्यत : सोऽन्तर्वान भवत् । स उपपक्षाभ्यामेवप्नसृजत । तेभ्यो रजते पात्रे घृतमहत् । यास्य तनूरासोत् तामपाहत | साऽहोरात्रियोः सन्धिरभवत् । (कु. यजु० ते ना. २६)
अर्थ-प्रजापति ने उत्पन्न करने की इच्छा की तप किया. वह गर्मवान हुआ. दोनों पाश्यों (पासे)से ऋतु-कालाभि मानी नक्षत्रादि सृष्टि उत्पन्न की उन्हें चांदी के पात्र में घृत दिया, उन्होंने जो शरीर छोड़ा वह सन्ध्या रूप बना ।
देव सष्टि सोऽकामयत प्रजायेयेति । स तपाऽतप्यत । सोन्तर्वानमवत् । स मुखाद्देवानसृजत । तेभ्योहरते पात्रे सोममदुहत् । याऽस्य सा तनूरासीत् । तामपाहत । तदहरभवत् ।
(व० यजु० त० ब्रा० सराह) अर्थ- प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा की तप किया और गर्भवान् बना, मुंह में से देवों को उत्पन्न किया, उन्हें हरित पान में सोम रस दिया, जो शरीर धारण किया था उसे छोड़ा, उसका दिन हो गया । देव उत्पन्न करने वाला शरीर दिन रूप हुआ यही देवों का देवपन है। सृष्टि क्रमका कोष्ठक
५-प्रकाश २-श्रमि
५-बड़ी ज्वाला ३-ज्याला
६-भ्रूमादिका घन
समुद्र