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५ --- अस्थि कृत्वा समिधं तदष्टापो असादयन् । रेतः कृत्वाऽऽज्यं देवाः पुरुषभाविशन् || २६ ॥ ६ - या श्रापो. याच देवता या विराड़ ब्रह्मणा सह । शरीरं ब्रह्म प्राविशच्छरीरेऽधि प्रजापतिः ||३०|| ७ – सूर्यश्च चुर्वातः प्राणं पुरुषस्य विभेजिरे । -
अथास्वेतर मात्मानं देवाः प्रायच्छन्नप्रये ॥ ३१ ॥ ८ तस्माद्वै विद्वान पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते । सर्वास्मिन् देवता गावो गोष्ट इवास्ते || ३२ || (अथर्व० १/१८)
" (१) सबसे प्रथम ( देवेभ्यः दश देवाः ) देवोंसे दस देव उत्पन्न हो गये। जो इनको प्रत्यक्ष (विधान) जानेगा, वह अन्य आज ही (महत् वदेत्) महत् के विषय में बोलेगा । (२) जां पहले देवोंसे दस देव हुए थे पुत्रोंको स्थान देकर स्वयं किस लोक में रहने लगे हैं ? (३) सिंचन करने वाले वे देव हैं कि जो सम्र सामग्रीको एकत्रित करते हैं । (देवाः) ये देव सघ (मत्य) मरण धर्मी शरीर को सिंचित करके पुरुषमें प्रविष्ट हुए हैं । (४) जो (ag: पिता) कारीगर देवका पिता (उत्तरः स्वष्टा) अधिक उत्तम कारीगर है, वह इस शरीर में छेद करता है, तत्र मरण धर्म वाला (गृह) घर बना कर सब देव इस पुरुषमें प्रविष्ट होते हैं । (५) हड्डियों की समिधायें बना कर रेसका घी बना कर (अ आपः ) आठ प्रकार के रसको लेकर सब देवोंने पुरुषमें प्रवेश किया है। (६) जो आप तथा अन्य देवताएं हैं और ब्रह्मके सत् वर्तमान जो विराट है ब्रह्म ही उन सबके साथ (शरीरं प्राविशन) शरीर में प्रविष्ट हुआ है, और प्रजापति शरीर में अधिष्ठाता हुआ
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