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है। (७१ सूर्य चक्षु बना, वायु प्राण हुआ, और ये देव इस पुरुष में रहने लगे, तत्पश्चात् इसके इतर श्रारमाको देषोंने अमिके लिये अर्पण किया। (८) इसलिये इस पुरुषको (विद्वान् ) जानने वाला ज्ञानी (इदं ब्रह्म इति) यह ब्रह्म है, ऐसा ( मन्यते) मानता है । क्योंकि इसमें सब देवताएं उस प्रकार इकठे रहते हैं कि जैसी गौवें गौशालामें रहती हैं।" ____ इन मंत्रों में स्पष्ट कहा है कि अमि. वायु श्रादि देवताएं इस शरीर में निवास करते हैं । अर्थात् प्रत्येक देवताका थोड़ा २ अंश इस शरीरमें निवास करता है । यही देवोंका "अंशावतरण" है। जो इस प्रकार अपने शरीर में देवताओंके अंशोंको जानता है वह अपने श्रास्माकी शक्ति जान लेता है और जो शरीर में रहने वाले देवतामाकं समंत अपने प्रात्मा को जानता है, वही परमेष्ठी परमात्माको जानता है । इस विषयमें निम्न मंत्र देखिये
ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्टिनम् । यो वेद मरमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् | ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कंभ मनु संविदुः ।।
(अथर्व०१०।७ । १७) "जो पुरुषमें ब्रह्म जानते हैं, वे परमेष्ठीको जानते हैं । जो परमेष्ठीको जानता है और जो प्रजापतिको जानता है, तथा जो (ज्येष्ठं ब्राह्मण) श्रेष्ठ ब्रह्मा हो जानते हैं, वे स्तंभको उत्तम प्रकार से जानते हैं । ___ इस मन्त्रमें, पुरुष, ब्रह्म, परमेठी, प्रजापति आदि सत्र नाम इसी खात्माके बताये हैं । जेठ ब्रह्म, व स्कम आदि भी इसी श्रात्माके वाचक है। परमात्मा भी इसी यात्माकी अवस्था विशेषका अथवा मुक्तस्माका नाम है।