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वेद और जगत
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१ - - त्रिनामि चक्रमजरमन वर्णम् ॥ १ ॥
२- - द्वादशारं नहि तज्जराय || १ ||
३ - सनादेव न शीर्यते सनामि ॥ १३॥ ऋ००१ मूक १६४ ४--पश्य देवस्य काव्यं यो न मचार न जीर्यति ।" ५---धुवाद्यौ वा पृथ्वी ध्रुवास पर्वता इमे
विश्वविद
जगत् ।। ४ ।। ऋ० मं० १० मुक्त १७३
१ ) त्रिनाभि, तीन ऋतुओं वाला यह संवत्सर, अंजर अमर है । (२) इस सूर्य को १२ आरे रूपी सम्वत्सर, वृद्ध नहीं कर सकता । (३) ये सूर्य आदि लोक, मूल सहित कभी नष्ट नहीं होते । (४) उस देव की रचना को देखो जो न नष्ट होती है, न जी ।
(५ यह पृथ्वी, द्युलोक, अन्तरिक्ष, और यह सत्र जगत मिथ्य है। इसप्रकार वेद जगतकी नित्यता को बताकर आगे कहते हैं कि(१) को ददर्श प्रथमं जायमानम् ।। ऋ० १११६४|४ (२) कतरा पूर्वा कतरा परायाः कथा जाते कत्रयों को बिवेद । ० २११८५ १
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(३) को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाताकुत इयं विसृष्टिः । अङ्ग देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ वभूव ॥ ६ ॥
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