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प्रचलित स्वभाव स्वर्ग नरक तिर्यकत्रेतादिभिः शास्वाभिः आवाक्शाखः सनातनोनादिस्वाचिरप्रवृत्तः ।
यह संसाररूपी वृक्षप्रश्वत्थ है, अर्थात् अश्वत्थ वृक्षक समान कामना और कर्म रूप वायुसे प्रेरित, नित्य, चंचल स्वभाव वाला है । स्वर्ग, मरक, तिर्यक, प्रेतादि शाखाओंके कारण ग्रह नीचे की ओर फैली हुई शाखा बाला है तथा सनातन यानि अनादि होने के कारण चिरकाल से चला आ रहा है।
ऊध्वंमूल मधः शान र प्राण्ययम् ॥ नरूप मस्येह तथोप लभ्यते नान्सो न चादिने च सं प्रतिष्ठा । __ श्री शङ्कराचार्य जी ने यहाँ लिखा है कि
तं क्षण प्रध्वं सिनम् , अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्य. यम् ।। १॥ तथा न च श्रादिः इत पारम्प, इदं प्रवृत्तः इति न केनचिद् गम्यते । न च संप्रतिष्ठा स्थितिः मध्यम् अस्य न केनचिद् उपलभ्यते । __अर्थात-इसज्ञण भंगुर अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय ( नित्य ) कहते हैं । (यह पर्याय की अपेक्षा से क्षण भंगुर है, सथा द्रव्य की अपेक्षा नित्य ) यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा है इसलिये ग्रह अव्ययह ॥१॥ इसका श्रादि भी नहीं है, अर्थात याहां से प्रारम्भ होकर यह संसार चला है, ऐसा किसी से नहीं जाना जा सकता । इस प्रकार इसका.अन्त भी कोई नहीं जनता कि इसका कत्र अन्त होगा यही अवस्था इसके मम्पकी है। क्योंकि अनादि पदार्थ का आदि अन्त नहीं होता है । इस प्रकार अन्ति स्मृति में जगत को नित्य माना है। इसी प्रकार अन्य अनक स्थल