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( ३६७ ) संहारेच्छापि नैतस्यभवेद प्रत्ययात्मनः। .. न च कश्चिदौं ज्ञातुं कहाचिक्षषि शक्यते ॥ ७ ॥ न च तद् बचने नवप्रतिपत्तिः सुनिश्मिता। अमुष्टायपिह्य गौ ब्रूयादात्मेश्वर्य प्रकाशनात् ।। ६० ॥ .
. . . श्लोक वार्तिक १०३ . भावार्थ:-जगत के पूर्व जब कुछ भी नहीं था, तो वह, ईश्वर, किस जगह रहता था। यदि आप कहें वह निराकार है, उसे पृथ्वी
आदिके आधारकी आवश्यकता नहीं, लो निराकारमें इच्छा और प्रयत्न किस प्रकार सिद्ध करोगे । क्यों कि सर्व व्यापक निराकारमें आकाशवा क्रिया होना असंभव है। इसी प्रकार इच्छा शरीरका धर्म है अशरीरीके इच्छा नहीं होती। अत: निराकार मानने पर सृष्टिकर्ता सिद्ध नहीं हो सकता, यदि साकार और संशरीरी मानो तो उसके लिए आधारकी श्रावश्यकता है, परन्तु प्रायमें श्राधार रूप पृथ्वी आदि का श्राप प्रभाव मानते हैं अतः यह प्रश्न होता है कि यह रहता रहा था। अच्छा यदि आपको प्रसन्न करने के लिये हम यह मान लें कि ईश्वरने जगको अनाया. आप यह बता (ज्ञाता च कस्तई नस्थ) कि उसको बनाते हुए किमने देखा ( "कोददर्श प्रथमं जायमान इस वेद वाक्यका यह अनुरंद है) जिबने
आकर जनता से कहा कि ईश्वरने मंसार बनाया है. यदि कहो कि किसी ने नहीं देखा तो श्राप में यह अन्धविश्वास कैसे कर लिया, तथा च श्राप यह भी अताने की कृपाकरे कि अान्य क्रिया किंमप्रकार प्रारम्भ हुई और किस स्थानसे प्रारम्भ हुई। यदि किसी स्थान विशेषसें तो इस विशेषताका क्या कारण हैं यदि सर्वत्र एक साथः क्रिया प्रारम्भ हुई तो सृधिका क्रम न रहा । पुनः प्राप प्रकाशाद् वायु' आदि क्रम बताते हैं वह न रह सकेगा : और उस