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( ४१७ )
"स्वभाव वादिनश्वाहु:" कः कण्टकानां प्रकरोतितीक्ष्णुं विचित्रितां वा मृगपक्षिणचि । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृचं न कामचारोस्तिकुतः प्रयत्नः ॥ १ ॥
व्याख्या - स्वभाववादी
हैंकों को are करता है ? और मृग पक्षियों को विचित्र रंग विरंगादि स्वरूप कौन करता है ? अपितु कोई भी नहीं करता । स्वभावसे हो सर्व प्रवृत्त होते हैं, इसवास्ते अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं होता है, इस वास्ते पुरुष का प्रयत्न ठीक नहीं है ।
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"अक्षर वादिनश्राहु:"
अक्षरात् क्षरितः कालस्तस्माद्वयापक इष्यते । व्यापकादि प्रकृत्यन्तः सैव सृष्टिः प्रचयते ॥ १ ॥
for the
"ग्रपरेयाहु:"
अक्षरशिस्ततो वायुस्तस्माजस्ततो अलम् । जलात् प्रभूता पृथिवी भूतानामेव संभवः ॥ २ ॥
व्याख्या -अक्षर वादी कहते हैं— अक्षर से क्षर का काल उत्पन्न हुआ। तिस हेतु से काल को व्यापक माना है, व्यापकादि प्रकृति पर्यन्त को हा सृष्टि कहते हैं ।
दूसरे ऐसे कहते हैं -- प्रथम अक्षरांश तिसमें वायु उत्पन्न हुआ। तिसवायु में तेज (अग्नि) उत्पन्न हुआ, अग्नि से जल उत्पन्न और जल से पृथिवी उत्पन्न हुई, इन भूतों का ऐसे संभव हुआ है। "अंडवादिनथाहु:"
नारायणः परो व्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् । अण्डस्यान्तस्त्वमी भेदाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥ १ ॥