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धारण में है, सो कर्म और मवानादि के व्यच्छेदार्थ है यह सर्व प्रत्यक्ष वर्तमान सचेतनाचेतन वस्तु इदं वाक्यालंकार में, जो कुछ अतीतकाल में हुवा, और जो आगे होगा. मुक्ति और संसार सो सर्व पुरुष ही है, उत्तशब्द अपि शब्दार्थ और अपि शब्द समु विष हैं ! अमृतस्य - अमरण म ( मोक्ष ) का ईशानः प्रभु है । यदि यक्वेति व शब्द के लॉप होने से जो अनेन आहार करके अति रोहित-अतिशय करके बुद्धि को प्राप्त होता है ।
"अपरेप्याहु:"--
विद्यमानेषु शास्त्रेषु ध्रियमाणेषु वक्तृषु ।
आत्मानं ये न जानन्ति ते में आत्महता नराः ॥ १ ॥
व्याख्या - और भी लोग कहते हैं कि-- शास्त्रों के विद्यमान हुए और वक्ताओं के धारण करते हुए भी जो पुरुष अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं. वे पुरुष निश्चय करके आत्मघाती है।
"देव मादिनश्वाहु"
स्वच्छन्दतो न हि धनं न गुणो न विद्या । नाप्येव धर्मचरणं न सुखं न दुःखम् ||
रु सारथि वशेन कृतान्त यानम् । देवं यतो जयति तेन यथा व्रजामि ॥ १ ॥
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व्याख्या - देववादी ऐसे कहिए है-स्वच्छंद धन गुण, विद्या धर्माचरण, सुख और दुःखादि नहीं हैं । किन्तु फाल रूपी यान ऊपर चढ़ा देव, तिसके वश से जहाँ देय ले जाता है नहाँ
मैं जाता हूं ।