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ततः शतसहस्रांशु रूयक्तेनामि चोदितः । कृत्वा द्वादश धात्मानमादित्योऽज्वलदाशिवत् ||
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जगामितवलः केवल जगतीं ततः । अम्भसा वलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः ॥ ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भोयाति संक्षयम् । विनष्टेऽम्भसि राजेन्द्र ? जाज्वलत्यनलो महान् ।।
सप्त | चिंषमथाज्ञ्जसा ।
भगवान वायुनाकोवली !!
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समति प्रबलं भीममाकाशं ग्रसतेऽऽत्मना ॥ श्राकाशमप्यभिनदन् मनो ग्रसति अधिकम् । मनो ग्रसति भूतात्मा सोऽहंकारः प्रजापतिः ।। अहंकारो महानात्मा भूतभव्य भविष्यवित् । तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भुः प्रजापतिः ।।
(म० भा० शान्ति प० ३१२ श्लो० २ से१३ )
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अर्थ - याज्ञवाल्क्य मुनि जनक राजा से कहते हैं कि-अनादि अनन्त नित्य, अक्षर ब्रह्मा जिस पद्धति से बारम्बार जन्मों का सर्जन एवं संहार करता है. वह सब तुम्हें विस्तार से समझता हूँ । दिन को समाप्त हुआ जान कर रात्रि में सोने की इच्छा रखने वाले अव्यक्त भगवान अहंकाराभिमानी रुद्र को