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सं स्वयंभूका अधिकार प्राप्त होता है । वेदान्त सृष्टिसे प्रम स्वयंभू
और ब्रह्मा एक प्रारम रूप ही है । जो भिन्नता है, केवल उपाधि जन्य है, अन्य कुछ नहीं । __अर्थात् ब्रह्म निराकार, निगुण है, स्वयंभू प्रकृति सप शरीर धारी है और बझा रजोगुण प्रधान है. इस प्रकार उपाधिभेद की विशेषता है। सांख्य को दृष्टि से स्वयंभू का शरीर अभ्यास प्रकृति रूप है तथा ग्राम का शरीर रजोगुण प्रधान व्याकृत प्रकृति रूप है. यह विशेषता है । बझा, प्राणी रचने के लिये सत्व सृष्टिका पारम्भ करता है।
उद्ववहस्मिनश्चैव मनः सदसदात्मकम् । मनसश्चाप्यहं कारपभिमन्तार मीश्वरम् ॥ महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च । विषयाणां गृहीणिशनैः पंचेन्द्रियाणि च ।।
(मनु० ॥१५-१५) अर्थ-प्रमाने स्वयंभू परमात्मा में से सत् (अनुमान आगम मिद्धः) असत् ( प्रत्यक्षा गौचर ) ऐसे मनका मृजन किया। मन से पहले अहंकार का निर्माण किया कि जिससे में ईश्वर ( सर्व कार्य करने में समर्थ ) हूँ, ऐसा अभिमान हुआ। अहंकार से पहले महसत्व की रचना की । टीकाकार मेधातिथि कहता है कि 'तत्त्र मुष्टिरिदानी मुख्यते' अर्थात् यहाँ से तत्व सृष्टि का वर्णन किया जाता है उक्त वाक्यमें तत्व शब्दका अर्थ महत्तत्व (बुद्धि) समझना चाहिये इस कथन से मन, अहंकार और महत्तत्व की उलदे कमसे संयोजना करनी चाहिये । अर्थात् सबसे प्रथम महत्तत्व है। उसके चाद अहंकार है और उसके बाद मन का नम्बर आता है । मनके पश्चाग पाँच तन्मात्रा की तीन गुणवाली विषय माहक पांच ज्ञाने