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(३९८ ) शान्त परमेश्वरमें यह अशान्तिप्रद इच्छा ही क्यों उत्पन्न हुई । ___(कतरा पूर्व कतरा परायोः कथा जाता)यह इस बास्यका युक्तिपूर्वक अनुवाद है । तथा च सर्व व्यापक ईश्वरकी क्रियासे जगत
मनास यपि जित र दुधक पत्थर लोहे के चारों ओर होनेसे लोहा क्रिया नहीं कर सकता, इसी प्रकार, परमासुओंके चारों ओर ईश्वरकी सत्ता होनेसे तथा सत्र ओर से क्रिया देनेसे परमाणु भी बहीं स्थित रहेगा । यदि कहो कि परमात्मा परमाशुओंके अन्दर भी व्यापक है इस लिये वह अन्तः क्रिया देवा है, तो भी परमाणुओं में किया न हो सकेगी, क्योंकि परमाणुओंके जो बाहर ईश्वर है वह अन्तः क्रियाका अवरोधक है। अतः सर्व व्यापक ईश्वर विश्वको नहीं रख सकता । यदि कहो कि ईश्वर सशरीरी एक देशी है तो उस शरीरका सृष्टा कौन है। यदि उसका भी कोई शरीरी कर्ता है तो उसके शरारका कर्ता कौन है। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा।
तथा च--कोई भला आदमी किसीको दुःख देना नहीं चाहता पुनः इस दुःखमय जगतको रच कर अनन्त जीयोंको दुःख सागर में डाल दिया उससे उसको क्या लाभ हुआ । यदि यह इस दुःखमय जगत को न बनाता तो उसका क्या बिगड़ता यदि कहो उसका स्वभाव है तो वह अपने स्वभाव को सुधार क्यों नहीं लेता। यदि कहो कि यह ईश्वरकी क्या है तो प्रश्न यह होता है कि यह दया किस पर. दया तो दयनीय पर होती है, परन्तु प्रलयमें तो कोई दयनीय नहीं था सबके सब सुखी थे, क्या सुखी जीवोंको दुःखमें डालनेका नाम अनुकम्पा है। और यदि दया दिम्बलाना ही उद्देश्य था तो सुखमय संसारकी रचना करनी थी क्या ऐसा करना उसकी शक्ति के बाहर था । यदि कहो कि सुख दुख कर्मानुमार जीव भोगता है तो ईश्वर बीच में क्यों श्रा