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लोकमान्य तिलक और जगत
लोकमान्य तिलक महोदय स्वयं लिखते हैं कि एक और प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्योंकी इन्द्रियोंको देखने वाला यह सगुण दृश्य निर्गुण परश्रझमें पहले पहल किस क्रमसे कम और क्यों दीखने लगा। अथवा यही अर्थ व्यावहारिक भाषा में यूँ कहा जा सकता है कि नित्य और विदरूपी परमेश्वर ने नाम रूपात्मक विनाशी और जड़ सृष्टि कब और क्यों उत्पन्नकी ? परन्तु ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जैसा कि वर्णन किया गया है यह विषय मनुष्य के लिये ही नहीं अपितु देवताओंके लिये भी अगम्य है।" गीता रहस्य, कर्म विपाक और आत्म स्वातंत्र्य, अधिकार | ० २६३ |
सत्यव्रत सामश्रमी
आप निरुक्तलोचन में लिखते हैं कि
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वस्तुतो वैदिक सृष्टि विवरणानि तुप्रायो रूपकाएयेवेति । तदेवः आदि सृष्टिकाल निर्णयो न कदापि भूतो भवतिभविष्यति वेति सिद्धान्तः । तव श्रूयते ध्रुवाय धुवापृथिवी ध्रुवासः पथैताइमे । ध्रुवं विश्वमिदं जगत् ध्रुवोराजा विशामयम् ऋ० १० । ११३ कोददर्श प्रथमं जायमानम् ॥ ऋ० ११६४।४ सिद्धाद्यौ सिद्धा पृथिवी सिद्धूमाकाशम् || पा० भा० ११११ इत्यादयश्च सिद्ध शब्दस्य चेदनित्यार्थं ता यथा अह पस्पशायां भगवान् स्तंजलिः नित्यपर्यायवाचकः मिद्धशब्दः । हति"
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अर्थ- वास्तव में मृष्टिविषयक जो वेदों में वर्णन है वह सब रूपक में कहा गया है। अतः सृष्टि कब आरम्भ हुई इसका निर्णय