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पुरुष प्रभवं केचिन् दैवात् केचित् स्वभावतः | अक्षाव चारित केचित् केचिदण्डोनचं महत् ।। ४६ || ध्याख्या-कितनेक, पुरुपसे जगत् उत्पन्न हुआ मानते हैं, अथवा पुरुष मय सर्वं जग। माना है घुरूप एवेदं सर्व मित्यादि वचनात्” और कितनेक देवसे और स्वभाव जगत् उत्पन्न हुमा मानते हैं और कितनेक अक्षर ब्रह्म के झरनेसे, अर्थात् मायावाव होनसे जगत् की उत्पत्ति मानते हैं कोई बहुस्यामिति वचनान्' और कितनेक अंडेसे जगतकी उत्पत्ति मानते हैं। यादृच्छिकमिदं सर्व केचिद्भुत विकारजम् । केचिच्चानेक रूपं तु बहुधा सं प्रधाविताः ॥ ५० ॥
ध्याख्या-किलनेक कहते हैं, कि यह लोक गहन्छ। अर्थात् स्वतो हा उत्पन्न हुआ है, और किसनेक कहते हैं कि यहजगत् भूतों के विकार से उत्पन्न हुअा है और कितनेक जगन् का अनेक रूप ही मानते हैं. एसे बहुत प्रकार विकल्प मृष्टिविषय में लोकों ने अज्ञानवश में कथन करे हैं। "वैष्णवास्ताहु"
जले विष्णुः स्थले विष्णु राकाशे विष्णु मालिनि । विष्णु मालाकुले लोके नास्ति किं चिद वैष्णवम् ।।५१
व्याख्या-वैष्णव मतवाले कहते हैं कि-जल में भी विद्या है, स्थलमें भा.विष्या है औरश्राकाशमें भी जो कुछ है. सो विष्णु कीही माला-पंक्ति हैसर्व लोक विष्णु की हो माला-पक्ति करके याकुल अर्थात् भरा हुश्रा है। इस वास्ते इस जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जोकि विष्णु का रूप नहीं है।