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(३९१ ) न ब्रमण है और न निरुक्त है, इसलिये व्याख्या करने का कोई सहारा नहीं है। अतः व्याकरण आदि से इसका अर्थ करना केवल साहसमात्र हो है. फिरभी जैसा समझ में आया है लिखताहूँ ___ आगे अपने यहो सृषि और प्रलग परक भाय्य किया है। पं० उमेशचन्द्र विद्यारन्त को सम्मति में यहां ऋत. सत्य, रात्रि, समुद्र, सम्वत्सर. सूर्य, चन्द्र, दिन. अंतरिक्ष श्रादि सब प्रांसवाचो शब्द हैं । ये सब जनपद थे तथा धाना यह प्रजापति सूपवेशियों का पुरोहित था तथा चन्द्रवंशियों का भो। इसो वाताने चन्द्रमा
और सूयको पुनः राजगहों पर बिठाया, यही इस सूक के सासरे मंत्रमें कहा है।
पूर्याचन्द्रप्रमो धाता यथा पूर्वमकल्पयत् ॥ *
अभिप्राय यह है कि जितने विद्वान है उतने ही अर्थ हैं । परन्तु वास्तष सब अंधेर में ही निशाना लगा रहे हैं।
हम भी इसी पहेलोका सुनमानेका प्रयत्न करते हैं श्राशा है विश पाठक इस पर विचार करेंगे। हमारी समझमें यहां प्राणविश का कथन है। ऋत, और सत् कारण कार्यरूप दो प्राण हैं। श्री शंकराचायने एतरेयोपनिषद भाध्यमें लिखा है कि--
ऋतं सत्यं मृर्तामुर्ताख्यम् प्राणः । २ । ३ । १८
अर्थात्-ऋत और सत्य मूत अमूते प्राण है। तथा वैदिक कोषमें भी (सत्यं वै प्राणाः) लिखा है अतः यहां ऋत और सत्य
4 धाता और विधाता, ऊषा और रात्रिके नाम हैं | यह हम सप्रमाण पृ०२६४ 'पर लिख चुके हैं, 'पटक यहीं देखनेकी कृपा करें । इस प्राधार से इस मंत्र का यह अर्थ हुअा कि रात्री ने चन्द्रमा को उत्पन्न किंवा श्रीः ऊपा ने सूर्य को | यह अर्थ युक्ति युक्त और वैदिक प्रक्रिया के अनुकत्ल है।