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( १ ) 'मोऽकामयत' । 'बस्था प्राजायेयेति ।
( तै० श६। छा० ६।२३ ) उस पर ब्रह्म को ही अनेक होनेकी इच्छा हुई (ऋ:१४ देखो) और अथर्ववेद में भी ऐसा वर्णन है, कि इस मारा इश्य सूधि के मूलभूत द्रव्य से ही पहले पहल काम' हुश्रा (अथर्व ६।२।१६) परन्तु इस सूक्त में विशेषता यह है कि निगुण से सगुण की. असन से सन् की, निमून्द से द्वन्द्व की प्रथा प्रसंगसे संग को उत्पत्ति का प्रश्न मानवा बुद्धि के लिए अगम्प समझ कर सांख्यों के समान केवल तयश हो मूल प्रकृति हो को या उसके सदृश्य किसी दूसरे तस्त्र को स्वयंभू और स्वतंत्र नहीं माना हैं, किन्तु इस सूक्त का ऋषि कहता है कि जो बात समझमें नहीं आती; परन्तु उसके लिए शुद्ध बुद्धि से और प्रात्म प्रतीति में निश्चित क्रिट गरे अनिर्वाय PM को योग्यता की वैश्य मष्ट्रिय भाया की योग्यता के बराबर मत समझो, और न परब्रह्म के विषय में अपने अद्वैतभावको ही छोड़ो। इसके सिवाय यह सोचना चाहिए यद्यपि प्रकृति को भिन्न त्रिगुणात्मक स्वतन्त्र पदार्थ भी लिया जाये. तथापि इस प्रश्न का उत्तर तो दिया ही नहीं जासकला, कि कि उसमें सृष्टि का निर्माण करने के लिए प्रथमतः युद्धि (महान ) या अहंकार कैसे उत्पन्न हुश्रा। और जन कि यह दोष कभी टल ही नहीं सकता है तो फिर प्रकृति को म्वतन्त्र मामले में में क्या लाभ है ? सिर्फ इतना कहो. कि यह बात समझ में नहीं आती कि मूल ब्रह्म से लन् अर्थात् प्रकृति केमे निर्मित हुई। इसके लिये प्रकृति को स्वतन्त्र मान लेने की ही कुछ आवश्यकता नहीं है । मनुष्य की बुद्धि की कौन कहे, परन्तु देवताओं की दिव्य दृष्टि से भी सत् की उत्पत्ति का रहस्य समझ में आजाना सम्भव नहीं. क्यों कि देवता भी रश्य सृष्टि के श्रारम्भ होने