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स्थित हैं। अर्थात ज्ञान, विद्या और बलका यह प्राण ही केन्द्र है
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(३) जिस प्रकार मनुष्य के शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है। उसी प्रकार यह प्रारण भी आत्मासे उत्पन्न होता है, अर्थात यह मानसिक इस शरीर में आ जाता है।
(४) जिस प्रकार सम्राट पृथक पृथक ग्राम व नगरादिमें यथा योग्य अधिकारियोंको नियुक्त करता है, उसी प्रकार यह मुख्य ही अन्य प्राणों (इन्द्रियों) को पृथक पृथक नियुक्त करता है। यहां श्री शंकराचार्यने 'इतरान्प्राखान् का अर्थ चतु यदि इन्द्रियां ही किया है। (४) प्राणको पशु और उपस्थमें अपानको नियुक्त करता है, तथा नासिका, चक्षु और श्रोत्रमें स्वयं उपस्थित होता है । यह समान वायु (प्राण) ही खाये हुये अन्नको समभाव से शरीर में सर्वत्र ले जाता है। उम प्राण रूपी अमिसे दो नेत्र, दो कार्य दो नासारन्ध्र और एक रसना ये सात इन्द्रिय रूपो जलायें उत्पन्न होती हैं।
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(६) सुषम्ना नामकी नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने लाउदान वायु (इस जीवको) पुण्य कर्मसे स्वर्ग लोकमें तथा पपकमले नरक में और पाप और पुण्य दोनों प्रकारके मिश्रित कमसे मनुष्य लोक में ले जाता है ।
(3) इस जीवका जैसा संकल्प होता है, यह उसी प्रकार के भारतका श्रास करता है, वह प्राण तेजसे युक्त हो उस जीवको संकल्प किये हुये लोकमें ले जाता है। तथा च
मुंडकोपनिषद श्रुति है यथा
पमा चीयते मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् । १८
तन्नमभि जायते श्रनात् प्राणी