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जाता है । हमारे देश में इस सूक्तके ही विषयका आगे ब्राह्मणों ( तैत्ति २२ । ८8 ) में उपनिषदों और अन्तर नेशन्स शास्त्र के ग्रन्थों में सूक्ष्म रीति से विवेचन किया गया है । और पश्चिमी देशों में भी अर्वाचीन काल के कान्ट इत्यादि तत्व ज्ञानियों ने उसी का अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षण किया है। परन्तु स्मरण रहे कि इस सूक्त के ऋषि की पवित्र बुद्धिमें जिन परम सिद्धान्तों की स्फूर्ति हुई हैं. वही सिद्धान्त आगे प्रतिपक्षियों को विवर्त-वाद के समान उचित उत्तर दे कर और भी दृढ़ स्पष्ट तर्क दृष्टि से निःसन्देह किये गये हैं- इसके आगे अभी तक न कोई बढ़ा है और न बढ़ने की विशेष आशा ही जा सकती है।" ( गीता रहस्य अध्यात्म प्रकरण )
सृष्टि विषय में तिलक महोदय के विचार आगे प्रगद करेंगे । यहाँ तो सृष्टि विषयक परस्पर विरोधा श्रुतियों को प्रगट कर दिया गया है।
समीक्षा - परन्तु जैसा कि हम पहले सप्रमाण लिख चुके हैं कि यदि इस सूक्तको सृष्टि सूक्त माना जाये तथा उपरोक्त अथ ही ठोक माने जायें. तब तो 'मैकडोनल्ड' के इस कथन का समथन हा होता है कि "नासदीय सूक्त में उसी प्रकार के दोष हैं, जैसे भारतीय दर्शन मात्र में हैं । अर्थात विचार धारा अस्पष्ट और असंबद्ध है" *
बा० सम्पूर्णानन्दजी ने इस तत्र को अनुभव किया, अतः 'भारतीय सृष्टिक्रम विचार' में आप लिखते हैं कि "यदि सत" और अतू' का प्रयोग यहां कोप और व्याकरण सम्मत 'होने' और न 'होने' के अर्थ में हुआ है तब तो यह कहना किन मत् था और असत् या निरर्थक वाक्य हो जाता हैं । फिर यह श्रुत्यन्तर के विरुद्ध भी है।"