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श्रतःयह कहना अनुचित न होगा कि उपरोक्त प्रयत्नोंसे यह सूक्त और भी जटिल बना दिया गया है । सब से प्रथम हम सूरत में आये हुये, सन्. और असत् . शब्दों पर विचार करते है. क्यों कि सभी व्याख्याकारों ने इन शब्दों के भिन्न २ अर्थ किये हैं। ऋग्वेदमें एक मन्त्र हैभारत सधपहने ज्योलन क्षार दिने रुपये १०५७
अथात “दत्त के जन्म के समय अदिति के पास परम आकाश में 'असस' और 'सत; ये दो पदार्थ थे।" यदि नामदीय सूक्तके उपरोक्त अर्थ ही किये जायें तो उस सूक्तका यह प्रत्यक्ष विरोध है। क्यों कि नासदीय सूक्तम्लय काल में सत और असत् का प्रभाव बताता है और यह मन्त्र सत् और असतकी विद्यमानता बताता है तथा अथर्व बेदमें है कि
असति सत प्रतिष्ठित सति भूत प्रतिष्ठितम् । भूतं ह भव्य अाहितं भव्यं भूते प्रतिष्टितम् । अथर्व० १७१११६
अर्थात् "अमत में सत प्रतिष्ठित है। अर्थात कारण में कार्य विद्यमान है । तथा सन में ( वर्तमान में ) भूत (जो बीत गया) प्रतिष्ठित है । और भूत में भविष्य निहित है। और भविष्य भूत में टिका है । " यहाँ सत और असत दो पदार्थ विद्यमान है । अथवा यू कह सकते हैं कि यह मन्त्र सत और असत् एवं
इस लिये श्रापने इस सूक्तमें आये हुये, सत् असत्, मृत्यु और अमृत आदि शब्दों के प्रचलित अर्थोंभे विभिन्न दी अर्थ किये हैं। किन्तु जिन दापों को मिटाने के लिये आपने इतनी क्लिष्ठ कल्पनायें की हैं स्न दोषों को श्रार दूर न कर सके । तथा मष्टि कर्ता ईश्वर का तो आपने चिदविलास' में जिन प्रवल युक्तियों द्वारा खंडन किया है उनको हम उहत