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'नैवेह किंचनाग्र आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत् '
पहले यह कुछ भी न था, मृत्युसे सब श्रादित था, (बृह - १ १ २ । ५); और (६) समका मैयुपनिषद में
'तमो वा इदमग्र आसीदेकम् ' ( मैं० ५/२)
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पहले यह सब अकेला तम ( तमोगुणी अन्धकार) था, - आगे उससे रज और सत्व हुआ ।
सारे वेदान्त शास्त्र का रहस्य यह है, कि नेत्रों का या सामान्यतः सब इंद्रियों को गोचर होने वाले विकारी और विनाशी नाम रूपात्मक अनेक दृश्यों के फंदे में फंसे न रह कर, ज्ञान-दृष्टि से यह जानना चाहिये कि इस दृश्यके परे कोई न कोई एक गौरत है । हो सानेके लिए उक्त सूक्त के ऋषिकी बुद्धि एक दम दौड़ पड़ी है, इससे यह देख पड़ता है, कि उसका अन्तर्ज्ञान कितना तीव्र था ! मूलारम्भमें अर्थात् सृष्टि के सारे पदार्थों के उत्पन्न होनेसे पहिले जो कुछ कहा था, वह सत्था या असत् मृत्यु था या अमर, आकांश या जल, प्रकाश था या अन्धकार ! ऐसे अनेक प्रश्न करने वालों के साथ वादविवाद न करते हुये उक्त ऋषि सबके आगे दौड़ कर यह कहता है, कि सत् और असत् मत्य और अमर अन्धकार और प्रकाश यच्छदन करने वाला और श्राच्छादित सुख देने वाला और उसका अनुभव करने वाला, ऐसे अद्वेत की परस्पर-सापेक्ष भाषा दृश्य सृष्टिकी उत्पत्ति के अनन्तर की है, अतएव सृष्टि में इन द्वन्दों के उत्पन्न होने के पूर्व अर्थात जब एक और दूसरा वह भेद ही नथ तय कौन किसे आच्छादित करता ? इसलिये आरम्भ ही में इस सूक्त का ऋषि निर्भय हो कर यह कहता है, कि मूलारम्भ के एक त्र्यं को म
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