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या असत्, आकाश या जल, प्रकाश या अन्धकार. अमृत या मूल्य. इत्यादि कोई भी परस्पर सापेक्ष नाम देना उचित नहीं जो कुछ था वह इन सब पदाथों से विलक्षण था, और अकेला एक चारों ओर अपनी अपरंपार शक्ति से स्फूर्तिमान् था। उसकी जोड़ी में या उसे आच्छादित करने वाला अन्य कुछ भी न था ।
दुसरी मा में नाजीति' द्विमा पद के 'अन्' धातु का अर्थ है. श्वासोच्छवास लेन्दा या स्कुरण होना, और 'प्राण' शब्द भी उसी धातु से बना है, परन्तु जो न सत् है और न असन् उसके विषय में कौन कह सकता है, कि वह सजीव प्राणियों के समान श्वासोच्छ वस लेता और श्वासोछ वास के लिये वहाँ वायु ही कहाँ है । अतएव 'अनोत' पद के साथ ही--'अवातं' = विना वायु को और स्वधया' -- स्वयं अपनी हो महिमा से इन दोनों पड़ा को जोड़ कर "सृष्ट का मूल तत्व जड़ नहीं था यह अद्वतावस्था का अर्थ दत्त की भाषा में बड़ी युक्ति से इस प्रकार कहा है, कि वह एक बिना वायु के केवल अपनी ही शक्ति से श्वासोच्छ वास लेता या स्फूर्तिमान होता श्रा ? इसमें वाह्य दृष्टि से जो विरोध दिखाई देता है, वह द्वैती भाषा की अपूर्णता से उत्पन्न हुन्मा हैं । 'नेति नेति' 'एकमेवाद्वितीयम्' या 'स्वमहम्नि प्रतिष्ठितः'
(छा० २०२४११) अपनी ही महिमासे अर्थात् अन्य किसी को अपेक्षा न करते हुए अकेला ही रहने वाला इत्यादि. परब्रह्मके वर्णन उपनिषदामें पाये जाते हैं. वे भी उपरोक्त अथके द्योतक है । सारी सृष्टि के मूलारम्भमें कारों भोर जिस एक अनिर्वाच्य तत्वके स्कुरण होनेको