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अपने शरीर के अन्दर ब्रह्मका अनुभव करनेका यह फल है परमात्मा के साक्षात्कारका यही मार्ग है। इसलिये अपने शरीर में देवा अशोका ज्ञान प्राप्त करके उन देवताओंका अधिष्ठाता जो एक आत्मा है, उसका अनुभव प्रथम करना चाहिये । पूर्वोक्त ऐतरेय उपनिषद् के वचनमें प्रत्येक देवताका भिन्न २ स्थान कहा है । उस स्थानमें उक्त देवताके अंशका स्थान समझना चाहिये। बाहरको सृष्टि श्रमि वायु आदि देवता विशालरूप में हैं। उनके अंश प्रत्येक शरीर में आकर रहते हैं, और इस प्रकार यह जीवात्माका साम्राज्य अर्थात शरीर बन जाता है। (वेद परिचय में पं० मानवलेकर)
सोऽकामयत जाया मे स्यात् ( ० ० ११४ १७ ) मन एवास्यान्मा वाग् जाया । ( ११४५७ ) मन बाणी प्रारण आत्मा के अन्न हैं ।
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स प्राणमसृजन प्राणष्टां खं वायु ज्योतिरापः । पृथिवीन्द्रियं मनोऽस' पन्नायं तपो मन्त्राः |
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क लोकालोकेषु च नाम च । प्रश्न० ६ । ४ आत्मन ए प्राणो जायते यथैषा पुरुषावम्मितदा ततं मनो कुर्तनायात्यस्पिरे । प्रश्न ३ | ३ छायेव देहे, मनो कृतेन मनः संकल्पच्छादि निष्पन्न कर्मनिमितेनेत्येतत् । तदेव सक्रः सह कर्मणा ( वृ०४|४|१६)
अथान - अत्माने कामनाकी कि मेरे जाया स्त्री हो जाया नाम चाणीका है, क्योंकि श्रुति में आया है कि, मन, इसकी आत्मा हैं. चारणी जाता है । उस आत्मानं प्राणको उत्पन्न किया. प्राणसे मा फी-आकाश, वायु ज्योति जल. पृथ्वी इन्द्रियोंको उत्पन्न किया