________________
कामस्तदग्रे समवतंताधि, मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सताबन्धु ममति निर्गवन्दन , हदि प्रतीण्या कायो मनीषा।४।
अथान्-ब्रह्म के मन का जो प्रथम त था. वहीं मृष्टि के प्रारम्भ काल में मृष्टि बनाने की ब्रह्म की कामना अर्थात शक्ति धी। विद्वानों से चुछ अपने कृदयमें प्रतीक्षा करके इसी असन् - ब्रह्ममें सत् का विनाशी दृश्य-सृष्टि का प्रथम संबंध जाना। तिरश्चानो बिततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरिस्विदासीत् । रेतोधाभासम्महिमान श्रासन स्वधा अवस्तात्प्रयतिःपरस्तात __ अर्थ. अविद्या, काम और कर्म को मष्टि के हेतु रूप बताया गया । इनकी कृति सूर्य की किरलको तर म चीनीधी
और तियक जगत में फैल गई। उत्पन्न हुप कमी में मुख्यतः रेतोधा = रन = बीज भूत कर्म का धारण करने वाले जीव थे । महिमान अर्थात् श्राकाश आदि महत्पदार्श थे. स्वधा भाग्य प्रपंच विस्तार और प्रकृति अर्थात भोक्त विस्तार । इनमें भाग्य विस्तार अधम्तात उतरती श्रेणी , और भाक्त विस्तार पदस्तात् ऊंची श्रेणी का है। को श्रद्धा वेद क इह प्रयोचत् : कुत प्राजाता कुत इयं विसृष्टिः। अवांग देवा अस्य विसर्ज नेना था, को वेद यत भावभूचा।
अर्थ-इस जगन का विस्तार किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारणसे हुअा है यह परमार्थ रूपसे (निश्चयसे)कौन आन सकता है या इसका वणन कौन कर सकता हैं ? कोई नहीं कर सकता | क्या देवता नहीं कर सकते और कह सकने ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि देवता सृष्टि के बाद उत्पन्न हुये हैं इस लिये वे पहले की बात कैसे जान सकते हैं ? यदि देवताओंको भी