________________
{
३७४ )
यह मालूम नहीं है तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले मनुष्यादिककी तो बात ही क्या कहना ? अर्थात् मनुष्य कैंसे जान सकते हैं, कि अमुक निश्चित कारण ही यह सृष्टि उत्पन्न हुई है ।
इयं विसृष्टित वभूव यदि वा दधे यदि वान । सोऽस्याध्यचः परमे व्योपन, सो अंग वेद यदि वा न वेद |७|
अर्थ- गिरि, नदी, समुद्रादि रूप यह विशेष सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई हैं उसे कौम जानता है ? श्रथवा इस सृष्टिको किसी ने धारणकी है या नहीं की हैं यह भी कौन जान सकता है ? क्योंकि इस सृष्टिके अध्यक्ष परमात्मा परम उच्च आकाशमें रहते हैं । उस परमात्मा को भी कौन जानता है ? वह परमात्मा स्वयं सृष्टि को जानता है या नहीं ? इसकी भी किसको खबर है ?
सृष्टि सूक्त और तिलक
"उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा कि सारे मोक्ष धर्मके मूल भूत अध्यात्म ज्ञान की परम्परा हमारे यहां उपनिषदों से लगा कर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास कबीरदास सूरदास तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है । परन्तु उपनिषदों के भी पहले यांनी अत्यन्त प्राचीन कालमें ही हमारे देश में इस ज्ञानका प्रादुर्भाव हुआ था. और तब से कम क्रमसे उपनिषदोंके विचारोंकी उन्नति होती चली गई है। यह बात पाठकों को भली भांति समझा देनेके लिये ऋग्वेदका एक प्रसिद्ध सूक्त भाषान्तर सहित यहां अन्स में दिया गया है, जो कि उपनिषन्तर्गत विवाका आधारस्तम्भ है। सृष्टिके अगम्य मूलतत्व और उससे विविध दृश्य सृष्टिकी उत्पत्तिके विषय में जैसे विचार इस सूक्त में प्रदर्शित किये गये हैं वैसे प्रगल्भ स्वतन्त्र