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प, असली को समझाने लगा और ज्ञान का प्रकाश सर्वत्र पड़ने लगा, जब भिन्नता को छोड़ कर एकता की ओर चित्त चलने लगा. तब उपास्य श्रादर्श भी भिन्न भांति का खड़ा हो गया। उस समय जैसे इन्द्र देवता अपरिमित अपरिच्छन्न पृथिव्यादि का सृष्टि कारक जगन का प्राधार जान पड़ा बसे ही अग्नि सामादि देवता भी ब्रह्मरूप समझ पड़े। इस प्रकार देवताओं की क्रिया का अपरिमितत्व एवं सब क्रियों में अनुप्रविष्ट कारण सत्ताकी एकताकी और साधकका चित प्रभावित होने योग्य हो जाता है । इसी उद्देश्यसे वेदमें ऐसी वर्णना निवद्ध हुई हैं, कि एक ही अग्नि विविध आकारोंसे अाकाश. अन्तरिक्ष मृलोक ओषधि एवं जल में अवस्थित हैं। एक ही इन्द्र सूर्यरूपसे नक्षत्ररूपसे अनिरूपसे और विदात रूपसे अवस्थित है फिर इन्द्र अग्नि सोमादि. देवताका विश्वकप नामसे भी वर्णन किया गया है। इन सब वर्णनोंका एक ही उद्देश्य है। देवताओंकी क्रियालि यदि एक ही प्रकार की है, तो सब देवता मूलमें एक है सुतरां ये स्वनन्त्र कोई पदार्थ नहीं है यह महातत्त्व विकसिंत कर देना ही उक्त सम्पूर्ण विशेषणोंका उद्देश्य है ।
देवताओं और मूलमत्ता में कोई भिन्नता नहीं । हम इस विषय पर यहाँ कुछ विशेषण उद्धृत करते हैं। हम इन विशेषणोंको तीन श्रेणियोंमें विभक्त कर लेंगे। हम दिखलायेंगे कि-(१) देवताओं के कार्यों की भिन्नता कथनमात्र है । उनके काम कोई भिन्नता नहीं । (२) देवनाओं के नामांकी भिमना भी कथनमात्र हैं, उनके नामोंमें कोई भिन्नता नहीं है। देवता सर्व
अमृत का धरम कार रस्त्ता या घरमपदः है। उसमें मनुष्य. रागा कर योग करेंगे?