________________
1 क
यावत्या श्रयमाञ्श्राशयानेोऽदिर साकाशः । उभे अस्मिन्याचा यित्री अन्तरेव समाहिते उभावनिश्व वायुश्च सूर्याचन्द्रमा विद्युना यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्व्वं तदस्मिन् समाहितम् इति । छा० ८ ११।३
I
बहु अन्तर- हृदयका आकाश इसी आकाशकी तरह बृहत् है । स्वर्ग, मत्र्य, अत्रि, वायु चन्द्र सूर्य, विद्युत्, नक्षत्र- जो कुछ हैं; और जो नहीं हैं - सब उसीके अन्तर्गत है।
अन्यत्र देहको देवालय कहा है-
देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवाः केवलः शिवः ।
मैत्रयी २११
देहको इस लिए देवालय कहते हैं कि यहाँ पर सदाशिव विष्टि है। देह जिसे देवताका आलय है वे देव स्वयं भगवान हैं। उपनिषद् में उनका केवल देव शब्द द्वारा अनेक स्थानों पर निर्देश किया गया है। वह युतिमान् देवता है, ज्योतिफा ज्योति है. इसी से उसका नाम देव (दिव द्योतने ) है वह (ज्ञानंसे ) सर्वव्यापी हैं और सारे जगत् में अनुस्यूत है इसीसे वह देव (दिव व्याप्ती) है। इसलिये उसका एक नाम विष्णु (वैषष्टि इति विष्णुः) है। श्वेताश्वतर उपनिषद्का कथन है-
।
"
उपरोक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि - हिरण्यगर्भ परमात्मा, महेश्वर, सब नाम इसी जीवात्मा के हैं. संथा इस जीवके प्राण ध्यादिकी रचनाको ही हिरण्यगर्भ की सृष्टि रचना कहा जाता है।