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"प्राण एव पुरोऽनुवाक्या, अनोयाज्या, व्यानः शस्या" प्राण ही पुरोऽनुवाक्या है, अपान याज्या है और व्यानशस्या है। ऐतरेय ब्राह्मण ६, १४ में कहा हैं I
में
प्राणो में होता । प्रायः सर्व ऋत्विजः । ६ । ३ वा सुया २ । २८ में मनो वै यज्ञस्य मैत्रावरुणः । २ । २७ में प्रागु वै ऋषयों देव्यासः । १ । ८ में प्राणापानौ अनीषोमो चक्षुषों एव अग्नीपोष i
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प्रारण ही गो, धेनु और विप्र हैं। और आत्मा सोम है ।
सोमं गावो धेनवो वाक्शानाः ।
सोमं विप्रा मतिभिः पृच्छमानाः ॥ सोमः सुतः पूयते श्रज्यमानः ।
सोमे अर्कासिष्टुभः संतवन्ते । नि० परिशिष्ट २ ॥
सूर्य पक्षमें गौ धेनु और पिसे किरणोंका, और आत्मपक्ष में इन्द्रियोंका प्रण हैं ।
इसी प्रकार हंस, समुद्र, नृपा आदि दोनोंके नाम कहे गए हैं। प्राण ही चन्द्रमा है ।
विधुं दद्राणं सपने बहूनां । युवानं सन्तं पलितो जगार |
देवस्य पश्य काव्यं महित्वाऽद्या ममार सह्यः समान । नि० परि० २ |
(पस्थितः ) आदित्य ( समने बहूनां + द्वारा 1.) आकाश विधि के मध्य में हमनशीला ( युवानम् + सन -