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विधुम) युवा चन्द्रमा को ( जगार) निगल जाता है। (देवस्य +महित्वा + काव्यम् + पश्य ) सूर्यके महान सामर्थ्य को देखो ( अ + ममार ) चन्द्रमा आज मरता है । ( ह्यः + सः + सम् + जान ) परन्तु कल ही पुनः जी उठता है ( समने ) संहाररूप संग्राम में जो प्राण (बहूनाम् + दद्राणम्) बहुतों को दमन करने हारा है ( युवानम् सन्तम् ) और जो सदा युवा रहता है ( विधुम् ) उस प्रारूप चन्द्रमाको ( पतितः) जरावस्थाके कारण शुक्ल केश रूप पुरुष ( अगार ) गिरजात हैं। इस देवकी महिमा देखो। यह प्राण आज मरता है कल पुनः जन्म लेता है।
सम् मान = अन-प्रणने । अन् धातुसे "श्रान" लिट् में बना है । इत्यादि कहाँ तक उदाहरण लिखें जाय । निरुक्तमें अध्यात्म और अधिदेवत पक्ष देखिये । यद्यपि परिशिष्ट यास्कृत प्रतीत नहीं होता तथापि यास्कानुकूल है इसमें सन्देह नहीं क्योंकि द्वादशाध्यायी निरुक्तसे भी उभयपक्ष दिखलाया गया है।
जगत और शरीर
ऋषियोंने इस मानव शरीर को जगतसे उपमा दी है यथाछान्दोग्योपनिषद् के चतुर्थ प्रपाठक के तृतीय खंडमें कहते हैं "वायु ही संवर्ग अर्थात अपने मैं सत्र पदार्थोंका लय करने वाला हे" | जब अनि श्रस्त होता है तब वायु में ही लोन होता है। सूर्य अस्त होता है तब वायु में ही लोन होता है इसी प्रकार चन्द्र और जल भी वायु में लीन होते हैं। यह अधिदेवत है" । " अ अध्यात्म कहते हैं प्राण तो गंधर्म है। जब वह (जीव ) सोता है तब वाणो प्राण में हो लीन होती है इसी प्रकार चक्षु क्षेत्र और मन ये भी प्राण में लीन होते हैं। ये दो दो संवर्ग है। देवों में वायु और प्राणों (इन्द्रियों) में प्राण" यहां बाढ़ जगत में जैसे वायु,
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