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"मनु- जीवात्या
जीवात्मा (
म
माम् ) उत्तम
{ ३४८)
प्राण ही सप्त होता है येभ्यो होत्रां प्रथमा मायेजे । मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतभिः ॥ १० । १३ । ७॥ ___ मनु = जीवात्वा । ( समिद्वाग्नि.) जिसने हृदयरूप अमिको प्रदीप्त किया है. वह ( मनुः ) जीवात्मा ( मनसा + सप्तहोभिः) मन और सप्तेन्द्रिय रूप-सप्त होताओं के साथ (प्रथमांम् ) उत्तम होम + अारोले) समपार करता है। होत्रायन्ने हबीपि यत्र सा होत्रा यत्रः । साम ।। येन यजस्तायते सप्त होता । यजुः । जिस यज्ञमें चक्षु आदि सप्त होता हैं । वेदी और शतपथादि प्राहाणोंके देखनेले यह प्रतीत होता है कि यज्ञादि विधान भी केवल प्रतिनिधि स्वरूप है। अध्यात्म यज्ञों के स्थान में विविध ऋत्विकों के साथ वाझ यज्ञ करके दिखलाये जाते हैं। कहाँ तक वर्णन किया जाय । सप्तसिन्धु, समलाक, सप्तराशि, सप्ताचि, समामि, सप्तहोत्र श्रादि पदोंसे भी सप्तेन्द्रियोंका ही प्रहण है। वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य कहते हैं।
१-चाम् यज्ञस्य होता । २-चक्षुयज्ञस्याऽध्ययुः । ३-प्राणी वं यज्ञस्य उद्गाता । ४-मनो के यज्ञस्य ब्रह्मा।
ग्रहाँ पर देखते हैं वाग . चक्षु, प्राण, और मन ये ही चार होता है, अध्वर्यु उद्गाता और ब्रह्मा है ।
पुनः वाह्य वन तीन प्रकारकी ऋचाएं तीन समयमें पढ़ी जावी हैं वे पुरानुवाक्या १ याज्या और शस्या कहाती हैं।
याचयाय कहते है,