________________
। ३५६ । स्वधा | ऋषीणां चरितं सत्यमथा' गिरसामसि ।। ८ ।। इन्द्रस्त्वं प्राण तेजसारुद्रोऽमि परिरक्षिता । त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः । यदात्वमभिवस्य थेमाः प्राण ते प्रज्ञाः । आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यतीति ।१०। वात्यस्त्वं प्राणक ऋपिरचा विश्वस्य सत्पतिः । वयमाद्यम्य दातार: पिता त्वं' मात रेश्चनः ॥ ११॥ या ते तनूर्वाधि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चतुषि । या च . मनसि संतताशिव तां कुरु मोक्रमीः ॥१२॥ प्राणुस्यद वशेसचे त्रिदिवे यत्प्रतिष्टितम् । मातेव पुत्रान् रक्षस्य श्रीश्च प्रज्ञा च विधेहि न इति ॥ १३ ॥ ( प्रश्न उ०२)
"यह प्राण अग्नि, वायु, सूर्य. पर्जन्य, इन्द्र प्रथिवी.रयि आदि सब है । जिस प्रकार रथ-नामा में आर जुड़े होने हैं. उसी प्रकार प्राण में मव जुड़ा हुआ है। ऋचा. यज, साम. यज्ञ. क्षत्र. और ज्ञान सब ही प्राण के आधार से हैं । हे प्राण ? तु प्रजापति है और गर्भ में तु ही जाना है । सब प्रजायें नर लिये ही यलि अर्पण करती हैं। तू देवों का श्रेष्ठ संचालक और. पितरों की स्वकीय धारण शक्ति है । अाथा आंगिरस ऋषियों का सत्य तपाचरण भी तरा ही प्रभाव है । तू इन्द्र, रुद्र, सूर्य. है तू ही तेजसे तेजस्वी हो रहा है । जब तू वृष्टि करता है, तब सब प्रजायें थानन्दित होती हैं, क्यों कि उनको बहुत अन्न इस वृष्टि से प्राप्त होता है। नू ही व्रात्य एक ऋप और सब विश्व का स्वामी है. हम दाता हैं और तू हम सब का पिता है। जो तेरा शरीर वाचा, चक्षु श्रोत्र और मन में हैं, उस को कल्याण रूप करो और हम से दूर न हो।