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प्राणो वावसंवर्गः । स यदा स्वपिति, प्राणमेक, वागप्येति, प्राणं चक्षुः प्राणं श्रोन, प्राणं मनः, प्राणोह्ये वैतान संवक्ते ॥ ३ ॥ (छौ० ४।३।३) .
"जब यह सोता है तब वाक , चक्षु, श्रोत्र, मन आदि सब भाणोंमें ही लीन होती है, क्योंकि प्राण ही इनका संवारक है।"
जिस प्रकार सूर्य उगनेके समय उसके किरण फैलते हैं और अस्त के समय फिर अन्दर लीन होते हैं, इसी प्रकार प्राण रूपी सूर्यका जागृतिके प्रारम्भ में उदय होता है उस समय उसकी किरणें इन्द्रयादिकों में फैलती है और निद्राके समय फिर इसमें लीन होती है। इस प्रकार प्रारणका सूर्य होना सिद्ध होता है । इसका दृश्य एक अंश में है, यह बात भूलना नहीं चाहिये। सूर्य के समान प्रारण भी कभी अस्त नहीं होता परन्तु अस्त और उदय ये शब्द हमारी अपेक्षा से उसमें प्रयुक्त हो रहे हैं। इस विषय में निम्न बचन और देखिये 1 ----
पतंग . स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रवद्धो, दिशं पतिवा, अन्यआयतनमलब्ध्वा , बंधन मेचोपश्रयत् एव मेव खलु, सोम्य, सन्मनोदिशंपतित्वा अन्यत्रायत्तनमलब्ध्वा, प्राणमेवोपश्रयते, प्राणपंधनं हि सोम्यमनः ॥ (छांउ०६८२) __ "जिस प्रकार पतंग” डोरी से बंधा हुश्रा, अनेक दिशाओं में घूम कर दूसरे स्थान पर आधार न मिलनेके कारण अपने मूल स्थान पर ही आ जाता है, इसी प्रकार निश्चय से हे प्रिय शिष्य ! बह मन्त्र अनेक दिशाओं में घूम कर दूसरे स्थान पर भाश्य न