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का और अदिति नाम समष्टि शरीरका है। (दो अक्खण्ड ने) जो सीमा वद्ध, विनश्वर शरीर है यह दिति तद्विन्न अदिति । इन्द्र माम जीवात्मा का है । इन्द्रिय शब्द का अर्थ इन्द्र लिङ्ग है अर्थात इन्द्रका चिन्ह करण द्वारा इन्द्र (जीवात्मा ) का बोध होता है अतः इस नेत्रादिक समूहको इन्द्रिय कहते हैं । इस से विस्पष्ट सिद्ध है कि इन्द्र नाम जीवात्मा का भी है । मनुष्य से लेकर कीट पर्यन्त का जो शरीर वह दिति, क्यों कि यह सीमावद्ध स्वगहनीय और विनश्वर है । इस सम्पूर्ण प्रारउका जो अला, असीम, अविनश्वर शरीर है वह अदिति है । इस अदिति के पुत्र जीवके सदगुण आदि देव हैं। अतः ये भी अविनश्वर हैं । और दितिके पुत्र राक्षस हैं । वे विनश्वर हैं। काम, क्रोध, लोभ आदि जो शरीरके धर्म हैं वे ही यहां राक्षस है। इन दोनोंमें मदा सम्राम रहता है। परन्तु प्राण ( नयन, कर्ण नासिका इत्यादि ) भी तो भौतिक है अतः ये भी दितिके पुत्र हैं फिर प्राणों और जीवात्मा में बड़ा विरोध रहना चाहिये । परन्तु रहता नहीं । यपि ये भौतिक और विनश्वर हैं तथापि ये सदा जीवात्मा इन्द्र के साथी हैं। भौतिक होने के कारण ही ये ही इन्द्रिय कभी २ असुररूप धारण कर जीवात्मासे घोर संग्राम करते हैं. इसी भावके दिखलाने के लिये इस आख्यायिका की सृष्टि हुई है। इस शरीरमें मुख्य एक ही प्रारा है। जीवात्माके योगसे यही एक प्राण सात होते हैं. दो नवन, दो कर्ण. दो नासिकाएँ और एक जिहा, पुन: इन सातोंकी अनन्त विषय पापना है। इसीको ७+७ सातको साससे गुणाकर ४६ दिखलाया है । विनश्वर हानेके कारण मरुत - मरण शील कहाता है और ये सदा इन्द्र के साथ रहत है। इन्द्र निमा इनका अस्तित्व नहीं रह सकता। अतः वेदों में भी इन्द्रको महत्वान् कहा है।