________________
। ३१० )
उपरोक्त दोनों मन्त्रोंको प्रायः सभी भाध्यकारोंने तथा अन्य विद्वानोंने भी जीवात्मा परक ही माना है ।
अर्थ – (ब्रह्म) तू स्त्री है तू पुरुष हैं, तू कुमार व बुम रां हैं. तू वुड़ में इंडेसे चलता है, तू उत्पन्न होकर सब और गुरु वाला होता है। अर्थात् सब ओर कामनाओं वाला होता है ।। × ७ ||
तिरछे बिल वाला और ऊपर की ओर पेढे वाला एक चमस ( सिर ) है उसमें सब प्रकारका यश ( इन्द्रियजन्य ज्ञान ) हैं. उस मस (सर) में सात ऋषि ( चक्षु आदि इन्द्रयाँ) रहत हैं. जो इस ( अस्य महतः गोपाः) ज्येषु ब्रह्म के रक्षक हैं । यहाँ ब्रह्मको जीवात्मा हा बताया
i
स्पष्टरूपस सूक्तकार ऋपिने इस हूँ । अतः अन्य देवताओं की तरह ही यहाँ भी ईश्वरका वर्णन नहीं है । समयका अर्थ पं राजारामजी आदि तथा साथ आदि भी चक्षु श्रादि इन्द्रियां ही किया है। तथा इसका विशेष विचार हम प्राणोंके वन में कर चुके हैं. वाचक व वहीं देखें | इन मूल सूक्तक अलावा उपनिषद में भी आत्मा का ही कथन है. इस कल्पित ईश्वरको वो उस समय तक सृष्टि ही नहीं हुई थी । उपरोक्त सूक्त का नियंबिलश्चमस' यह मन्त्र बृ. उ. २१२ । ३ में भी आया है, वहाँ स्वयं महर्षि याज्ञवल्क्यने इसका निम्न भाष्य किया है । यथा
la
तदेष श्लोको भत्रति । अर्वा विश्वपस उनस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपम् । तस्यासऋषयः सप्त । तीरे वागष्टमीण संविशति । प्राणा वै यशो विश्वरूपम् प्राणानेतदाह तस्था सप्त ऋॠषय सप्त तीर इति ।
प्राणा वा ऋषयः ।