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से ही देवता है और संपूर्ण हिंदु समाजको दृष्टिस कोई नहीं देखता; उसी प्रकार देवोंको गण संस्थामें भी वही दोष था। इस कारण देवों के गणों में परस्पर विद्वेष, झगड़े फिसाद आदि थे और समय समय पर बढ़ भी जाते थे। और असुर लोगोंका विजय इन देशों श्रापम के फिसादके कारण हो जाना था। असुरोंस परास्त होने पर देव अाफ्यमें पंबठन करने थे और अपनः बला बढ़ात थे पर अश्ग पर विजय प्राप्त करने थे इसके वर्णन ब्राह्मण अन्यामे और पुराणों में भी बहुत हैं। । (१) ने चतुर्षा व्यद्रावन , अन्योन्यस्य श्रिया आतिष्ठपाना
अग्निमुभिः सोयो रुद्रः, वरुण आदित्यः इंद्रो मरुद्भिः,
वृहस्पतिविश्वेदेवः। (२) तान्विद्रुतानसुररक्षमान्यतुयेयुः ।। १ ।। (३) ते विदुः पापीयांमा व भवामोऽसुररक्षसानि धै नोऽनु
व्यवागुः द्विषद्भ्यो चे सध्यामः ।। (४) हंत मंजानापहा, एकस्य श्रिय तिष्ठामहा इति ।
श. ब्रा० ३।।२।२ (५) ते होचुः । हन्तेदं तथा करवामहै, यथा न इदमानदि
बमेवाजयंमसदित ।। (६) ते इंद्रस्थ श्रिया प्रतिष्ठन्त तस्मादाहुरिन्द्रः सर्वा देवता,
इन्द्र श्रेष्ठा देवाः । श० ब्रा० ३।४।२।१-४ (१) उनके चार पक्ष बन गये. वे एक दुसरेकी शोभासे असन्तुष्ट हुए; अग्नि वसुओंसे. सेम न्द्रोंसे. वरुण आदित्योंसे. इन्द्र ममतोंसे और बृहस्पति विश्वदेयोंसे।