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( ३३५ ) परन्तु बहुत समय तक अपने ढङ्गसे चलने वाले स्वतन्त्र और देवों या आर्योके कल्याण के विपयमें पूर्ण उदासीन हो रहे थे। परन्तु उपेन्द्र विष्णु प्रयत्नसे अनेक बार असफलता प्राप्त होने के कारण महादेवने अपने श्रापको देवांके पक्ष में रखना योग्य समझा और तत्पश्चात् उनसे देवों और आर्योंको कोई कष्ट नहीं हुए । अर्थात् ये पूर्व आयुमें राक्षसांके सहायक थे परन्तु पश्चातकी वृद्धावस्थामें देवों और पार्यो के हितकारी बन गये ।
यज्ञभागके लिये युद्ध इससे पूर्व बताया ही है कि महादेव ऋतुध्वंशी, यज्ञहन , यज्ञघाती" जाति नामोंसे गिड़ है दन्त जागतिक पदन्याने नष्ट भ्रष्ट किया था। इसका कथायें रामायण महाभारत आदि इतिहास में प्रशिद्ध हैं और प्रायः पुराणों में भी हैं । इसका वृत्तांत यह है
"दक्षप्रजापतिने यज्ञ किया था, उन्होंने संपूर्ण देवीको निमत्रण दिया था. परन्तु महादेवको निमन्त्रण देना भी उसने उचित न समझा । इस पर झगड़ा हुआ और झगड़ा बढ़त बढ़ते युद्ध में परिणत हुश्रा । महादेवने अपने भूतगणोंको अपने सेनापतिके साथ यज्ञके स्थान पर भेजा और उन्होंने वहां जाकर यज्ञमंडप और संपूर्ण यज्ञका नाश कियाकेचिद्वभंजुः प्राशं पत्नीशाली तथापरे । सद पानीघ्रशाला च तद्विहारं महानसम् ॥ १४ ॥ रुरुजुर्यज्ञपात्राणि तथैकेऽप्रनिनाशयन् । कुण्डेष्वमूत्र यन्केचिद्विभिदुदिमेखलाः ॥ १५ ॥