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जखम बने थे । इस झगडे से महादेव को जो यश भाग प्राप्त हुआ उसका भी वर्णन यहाँ देखिये
एष ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै । यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतामद्य यज्ञहन् ॥ ५० ॥
श्री० भागवत । ६४ । "हे यज्ञयात करने वाले रुद्र महादेव ! यज्ञ का उच्छिष्ट अन्नभाग श्रापका होगा । इससे यज्ञ बढे।"
अर्थात् यज्ञका इनिष्ट अनभाग महादेव और उनके भूतगणों को देने का निश्चय करने से महादेव और भूतगणों ने आगे कभी यज्ञका घातपात नहीं किया । उच्छिष्ट अन्नभाग का तात्पर्य झूठा अन्न ऐसा ही समझने का कोई कारण नहीं है, उसका इसना ही तात्पर्य दीखता है कि अन्यान्य देवों का अन्नभाग देने के पश्चात जो अन्नभाग अवशिष्ट रहेगा बह रुद्र को दे देना। इतने अन्नभाग पर भूतगणों की संतुष्टी हुई । युद्ध करके अन्न का भाग किंवा अन्नका अन भाग भी नहीं लिया, परन्तु यज्ञके उच्छिष्ट भागपर ही संतुष्ट हो गये।
दक्षादि आर्य लोग देवों का सत्कार करते थे और उनको अन्न भाग देते थे। परंतु भूत लोगोंको या उनके भूवनाथ महादेवको न कोई यज्ञ में निमंत्रण देता था और न अन्नभाग देते थे। यज्ञ के समय देवजाती के लोग यज्ञमंडप में आकर प्रधान स्थान में बैठते थे और ताजा अन्न का भाग भक्षण करते थे । आर्य लोग भी उस प्रकार यज्ञमें समिलित होते थे और शेष बचा अन्न भूमिमें गाडते. या जल में बहा देते थे। परंतु भूत लोगों को यज्ञमंडप में आने की और अन्न भाग प्राप्त करने की आज्ञा न थी। आजकल भी जिस प्रकार द्विजोंके यज्ञादि कर्म करने के स्थानमें अंत्यज, दे