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(-) वे परस्परोंका द्वेष कर रहे हैं यह देखकर असुर और गक्षस उन पर हमला करने लगे।
(३) तब उन देवोंके समझमें बात आगई कि हम मूर्ख बन गये, और असुर राक्षस हम पर हमला करते हैं और हम न सुधरे तो शत्रुओंसे हम पामे जायगे।
(2) तबले निश्चय किया कि हम मा घटन करेंगे. और परस्परकी शोभा बढ़ानेके काममें लगेंगे।
(५) ये कहने लगे कि हम वैसा करें कि जिससे यह (संघठन) कभी न टूटे अर्थान हमेशा रहने वाला हो।
(३) वे इन्द्रकी श्री के लिये खड़े होगये, इसी लिये कहते हैं कि इन्द्र है। सब देवता हैं।"
ब्राह्मण अन्धोंमें इस प्रकारकी कई कथायें हैं और यहीं ध्वनि पुराणों और इतिहासेमि आई है, इसमे सिद्ध है कि देवोंके गणों में आपस में झगड़े बहुत थे इस कारण उनमें राष्ट्रीय कमजारी भी बहुत थी । अतः वे समय समय पर आपसमें सघठन करते थे
और अपना सांघिक चल बढ़ाते थे और अपने शत्रुओंका मुकाबला करते थे 1 गणसंस्थाके कारण गणोंके अंदर यद्यपि सांधिक बल था तथापि गणोंका परस्पर आपसमें झगड़ा और फिसाद होनेके कारण सब देवजातिमें जैमा चाहिये वैसा सांधिक घल न था । तथापि शत्रु उत्पन्न होने पर वे आपसमें समझौता कर लेते थे और अपनी संघदना करके शत्रुको भगा देत थे ।
इन्द्र और उपेन्द्र जिस प्रकार अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होते हैं, मन्त्री और उपमन्त्री होते हैं, उसी प्रकार इन्द्र और उपेन्द्र भी होते थे, इसका वर्णन पाठक लिम्न श्लोकमें देख सकते है--