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"कृमवाकु:सावित्रः" इति पशुसमाम्नाये विज्ञायते कस्मात सामान्यात् । इति कालानुवादं परीत्य कृकवाकोः पूर्व शब्दानुकरणं वचो उत्तरम् ।। भगः-'भगः' व्याख्यातः तस्यकालः प्राग उत्सपणात । पूषा-अथ यद् रश्मि रोष पुष्यति तत् 'पूया' भवति । विष्णु-अथ यद् विषितो भवति तद् विष्णुः । ___विशम् । व्यश्नोत्वा । तस्य एषा भवति । इदं विष्णुधिचक्र मे त्रेधा निदधे पदम् । यजुद, ५॥१५
अर्थ-विलाकी व्याख्या हो चुकी. उसका समय उषाकाल है. नथा च श्रुतिमें अधो भाग काला तथा ऊर्च माग श्वेत पशुको मविताका पशु कहा है, इस समानतासे भी सविनाका समय निश्चित होता है। तथा च मुर्गे' को भी अतिमें सविताका कहा है. इससे भी सबिताका काल जाना जाता है अर्थात जिस समय (प्रात:काल ) मुर्गा बालता है वहीं काल सविता का है. श्रर्थान उस समय के सूर्यको मथिता कहते हैं।
भगः--इसका काल जलपण ऊपर आकाश देशमें बढ़नेसे पहले है ! अर्थान-मध्य न्हसे पहले के मूर्यकोभगकहते हैं तथा उसके पश्रान उसकी मूष संज्ञा है।
पूषा-जब सूर्य तेजसे पूर्ण होकर रश्मियोंको धारण करता है. उस समय वह पूषा' कहलाता है।
विष्णु-उसकेपश्चात् उसीमूर्यकानाम विष्णु होता है। अर्थात् सायंकाल के सूर्य का नाम विष्णु है। जो यास ब्राझणकार