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यहाँ श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं किप्राणाः परिस्पन्दात्मकाः, न एव च ऋषयः ।
अर्थात्-उपरोक्त मन्त्रमें आये हुये 'यश' और मन ऋषयः' शन्दोका अर्थ परिस्पन्दात्मक प्राण हैं। तथा च चमम. का अर्थ स्त्रयं श्रुतिमें ही जिर' किया गया है। इससे अगली श्रुतिमें इसको
और भी स्पष्ट कर दिया गया है। उसमें इन सप्त ऋषियों के नाम भी बता दिये हैं। यहाँ दो कान दो आँग्ब, दो नासिकायें और एक रसना. इनको सप्त ऋषि फड़ा गया है । अतः स्परूपसे यहाँ जीवात्माका वर्णन है यह सिद्ध हुमा । तथा आर्य समाजफे महान वैदिक विद्वान पं० शिवशंकरजी काव्यतीर्थने अपनी पुस्तक वैदिक इतिहारमार्थ निर्णयके पृ. १६१ पर उपरोक्त मन्त्रके अर्थ जीवात्मा परक ही किया है। वहाँ बाम लिखक...
. 'यहाँ पर उर्व' पद शिरोगत सप्त प्राणांका ही ग्रहण कर पाता है।"
तथा निरुक्त नः १२।४ में उपरोक्त मन्त्रके अधिदेत्रिक अर्थ तथा अध्यात्म परक अर्थ किये हैं । यहाँ अधिदैविकमें सूर्य देवता अर्थ किया, तथा अध्यात्ममें जीवात्मा अर्थ किया है। वहाँ इसी शरीर के प्राणोंको ऋषि तथा यश' का अर्थ शान किया है। श्रतः यह स्कंभ सूर्य अथवा आत्मा वाचक है। इसमें कल्पित ईश्वरको कोई स्थान नहीं है।
केनोपनिषद और ब्रह्म केनोपनिषद् में
"केनेषितं पतति प्रेषितं मनः । केन प्राणः प्रथमः प्रति युक्तः ।। १।१