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अर्थ- जो भी इस पुरुषमें शरीर हैं वह यहीं है जो इस अन्तः पुरुषमें हृदय है. क्योंकि इसमें प्राण प्रतिष्ठित है. और इसीका अतिक्रमण नहीं करते। यह गायत्री चार चरण वाली और छ प्रकार है यह मन्त्रों द्वारा कहा गया है। यह सब ( उक्त ) महिमा इस पुरुषका (आत्मा की ) है । ( श्रस्य विश्वा भूतानि ) यह सब इन्द्रियें और प्राण आदि इसके एक अंश में है और तीन भाग इसके स्त्रश्रात्मा में लान है । यह जीवन मुक्त पुरुषका वर्णन के अर्थ में स्वामी शंकराचार्यजीने स्वयं - हुआ । यहाँ लिखा है कि-
"भूत शब्द वाच्याः प्राणाः"
अर्थात् यहाँ भूत शब्द वाच्य प्राण हैं ।
तथा च गीता में है कि---
“कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।" १७/६
यहाँ भूतग्रामका अर्थ इन्द्रिय समूह ही किया गया है। अतः मन्त्र में भूतानिका अर्थ इन्द्रियाण ही है । इस प्रकार यह मन्त्र श्री आत्मा वाचक ही है। अब इस आत्मासे विराट पुरुष (मनदेव) की उत्पत्ति बताई गई है।
विराट
तस्माद् विराट जायत विराजो अधि पूरुषः ॥ ५ ॥
अर्थात् उस आत्मा के एक पादले विराट पुरुष उत्पन्न हुआ। और उस विराटके ऊपर एक अधिष्ठाता पुरुष हुआ। अथर्ववेद भाग्य में सायराचार्य लिखते हैं कि