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अतः यहां ईश्वर अर्थ करना अपने ही सिद्धान्तका वात करना है । क्योंकि ईश्वरको जन्म लेने वाला ईश्वरवादी भी नहीं मानते। इसीलिये श्रीमान पं० सत्यव्रतजी सामाश्रमीजीने ऐितरेया लोचनमें लिखा है कि
"प्रजापतिरतिगतः इति श्रुतेः जीवोऽपि प्रजापति रिति गम्यते ।"
अर्थात- प्रजापतिश्चरनिगर्ने' इस श्रुति से यह जाना जाता है. कि जीव भी प्रजापति है । ० १५७
ता प्रश्नोपनिषदको ढोकामै लिखा है कि
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"यः प्रजापतिर्विराट सोऽपि त्वमेवेत्यन्वयः | २७
अर्थात- जो प्रजापति विराट है वह भी प्रास ही है। यतः स्पष्ट है कि उपनिषदकारने उपरोक्त वेद मन्त्रका ही खुलासा किया है और उसी पुरुषको प्राण बताया है ।
पुरुष
वृहदारण्यकोपनिषद में विश्व सृज पुरुपकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि—
स यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वन्याप्पन श्रपततस्मात् पुरुषः
१ । ४ । १
इसका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं किस च प्रजापति रति क्रान्त जन्मनि सत्य कर्म मात्रानुष्टानैः साधकावस्थायां यद यस्मात्कर्मज्ञान भावनाऽनुष्टाने प्रजापतित्वं प्रतिप्रसूनां पूर्वः प्रयः सन् ।
ज्ञान