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। २९८ ) स्वामीजीने इस ईश्वरको बन्धवा दिया इसके लिये संसार आपका कृतज्ञ है। क्योंकि यह बहुत वे कायू होगया था।
उनट' के मतमें इन्द्र आदि देषोंने जब' पुरुषमेध यज्ञमें मनुष्य रूप पशुको बाँधा. यह अर्थ है।
(समास्यासन ) का अभिप्राय सान समुद्रोंसे अधिपित यह भारतवर्ष है । क्योकि य यज्ञ भारतमें ही होत धे। अभिप्राय यह है कि यह सूक्त उस मनुष्यकी स्तुति परक है जिसका अभी बलिदान होना है । तथा च पैदिकः शतिहासाच नित्य' में पं.. शिवशंकरजी लिखते हैं कि
समपदसे नयन द्वय, करण्य, घ्राणद्वय, और सप्तमी जिह्वा का ग्रहण है 1 'इस जीवको चारों तरफसे घेरकर इस शरीरमें रखने हारं यही साती इन्द्रिय है। और इन सातोंके उत्तम, मध्यम अधमके भेदसे २१ प्रकार के विषय हैं ये कानों समिधायें हैं।"
यहाँ जीवात्माका वर्णन स्पष्ट है । उपरोक्त विधेचनसे यह सिद्ध है कि न तो यहाँ परमेश्वरका कथन है और न मृष्टि उत्पत्ति का ही जिकर है।
निरुक्त इस पुरुष सूक्तका अन्तिम १६ वा मन्त्र निरुतमें आया है । "यझेन यज्ञमयजन्तदेवाः। धर्माखि प्रथमान्यासन॥