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{ २८२ ) मुख्य धर्म हुए । जिस स्वर्ग में प्राचीन साध्य ( देव जाति विशेष ) और देवता हैं उसे उपासक महात्मा लोग पाते हैं । .. १.६०
श्री. सायणाचार्यके मतसे यह विराट पुरुष, राष्ट्र है आप लिखते हैं कि
"सर्व प्राणी समष्टि रूपो ब्रह्माण्डदेहो विसडाख्यः पुरुषः सोयं सहस्रशीर्षा"
अर्थात्-सर्व प्राणी साभिरूप मा देह बार विराट नामक पुरुष सहनशीषों है । इसीका नाम राष्ट्रपुरुष है।
समाज
अथर्ववेदके भाष्यमें इसी सूक्तका भाष्य करते हुए पं. जयदेवजी विद्यालंकार लिखते हैं कि
"किसी प्रजापतिके शरीरके मुख श्रादि अवयवोंसे बालकके समान ब्राह्मण आदि षों के उत्पन्न होनेका मत असंभव होनेसे अप्रमाणित है। यह केवल समाजरूप प्रजापति पुरुष जिसकी हजारों आँखे और पैरों श्रादिका प्रथम मन्त्रमें वर्णन किया है. उसके ही समाजमय शरीरके अंगोंका वर्णन किया गया है।"
राजा
_ यजुर्वेदके भाष्य अ. ३१ में इन्हीं मन्त्रोंका अर्थ राजा परक भी किया है। मापने लिखा है कि