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: २८८ । तथा अन्य ऋषियोंका मत है कि-दशांगुलबद्वय स्थान है. उसमें अथवा उससे परे यह अात्मा है।
एवं कई ऋप्रियांका मत है कि दशांगुलसे अभिप्राय यहाँ नामिका अग्रभागसे है । वहाँ ध्यान करनेसे यह आत्मा प्राप्त होता है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ जीवात्माका कथन है। तथा च-उपनिषद्में है किपुरमेकादश द्वारम जर स्यापक चेतस | कठ० उ० २१
अर्थात्-यह शरीर रूपी पुर ( नगर ) ग्यारह दरवाजों वाला है। इस पुरका स्वामी ( अात्मा) दस दरवाजोंको लांघ कर रहता है। अभिप्राय यह है कि उपनिषदूकार अपने उपरोक्त मन्त्रके ही भावको व्यक्त किया है। इसी प्रकार अथर्ववेदमें भी-- .
"अष्टा चका नव द्वारा" से इस प्रात्माके नगरका वर्णन किया है.।
मायणाचार्य सर्व वेद भाष्यकार सायणाचार्यने अथर्ववेदमें आये हुए इस सूक्तके आत्मपरक अर्थ भी किये हैं।
श्राप लिखते हैं कि--
"अत्रदशांगुल शब्देन हृदयाकाशम् उच्यते, तद् अत्यतिष्ठत् । पूर्व हृदयाकाशे परिच्छन्न स्वरूप सन् स्वानुष्ठित ऋतु सामर्थ्यात् परिच्छिन्नाकारा परित्यज्य सर्वाति शायि स्वरूपोऽभवद् इत्यर्थः ।"